जिंदगी तो मिली, पर जीना ना आया -- ओशो
मैंने सुना है,
एक महिला को सितार सीखने की धुन सवार हुई।
तो पहले ही दिन चाहती थी कि मेघ-मल्हार हो जाये।
पहले दिन चाहती थी कि पशु-पक्षी आ जायें।
बार-बार जाकर
खिड़की पर देख आती थी,
अभी तक कोई नहीं आया।न कोई भीड़ जुटी।
उलटे पति
जो घर में बैठा था
वह निकलकर बाहर चला गया।
बच्चे
जो घर में ऊधम कर रहे थे,
वे भी कहीं निकल गये।
पास-पड़ोसियों ने द्वार-दरवाजे बंद कर लिये।
तो उसने समझा कि
निश्चित ही सितार में कुछ भूल है।
जिस दुकान से
सितार खरीद लाई थी,
उसे फोन किया
कि आदमी भेजो,
सितार में कुछ गड़बड़ है।
आदमी आया, सितार ठोक-पीटकर
उसने कहा, यह तो बिलकुल ठीक है।
आदमी वापस पहुंचा भी नहीं था
कि फिर फोन…उसने कहा,
“भई इतनी जल्दी कैसे बिगड़ गया?’
उस महिला ने कहा
कि न बजाओ तो सब ठीक रहता है,
लेकिन बजाओ कि सब गड़बड़!
तब उस आदमी को समझ में आया।
उसने कहा कि
“देवी! बजाना भी आता है या नहीं
सितार की भूल नहीं है–
बजाना आता है कि नहीं!
कहते हैं,
परम संगीतज्ञ,
जिनको बजाने की कला आ जाती है,
अगर बर्तनों को भी बजा दें
तो सितार बज उठते हैं;
कंकड़-पत्थरों को टकरा दें
तो स्वरों का आरोह-अवरोह हो जाता है।
सितार की मूल नहीं है
जीवन की कहीं कोई भूल है।
बजाना न आया।
थोड़ा बजाने की फिक्र करो।
और बजाने का पहला सूत्र है:
स्वीकृति।
सब,
जो परमात्मा ने दिया है,
उसका कुछ न कुछ उपयोग है,
निरुपयोगी तो
हो ही नहीं सकता अस्तित्व में।
होगा भी क्यों?
फिर तो अस्तित्व न होगा,
अराजकता होगी।
सब उपयोगी है।
और जल्दी मत करना
काटने-पीटने की यह आदत गलत है,
इसे अलग कर दो; यह गलत है, इसे अलग कर दो।
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https://youtu.be/rAg3koefcSo
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