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Showing posts from February 14, 2021

नाम सुमर मन बावरे

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इसे YouTube पर देखने के लिए इस लिंक 👇 पर क्लिक करें https://youtu.be/lY_W38X2Y0Y *मनुष्य जीवन का संघर्ष क्या है?  इस संघर्ष का लक्ष्य क्या है?* मनुष्य जीवन का संघर्ष है मनुष्य होने के लिए।  मनुष्य  मनुष्य की तरह पैदा नहीं होता।  मनुष्य केवल  संभावना लेकर पैदा होता है।  जन्म के साथ  कोई मनुष्य नहीं होता।  कुत्ते जरूर कुत्ते होते हैं,  बिल्लियां बिल्लियां होती हैं।  कबूतर कबूतर होते हैं,  कौवे कौवे होते हैं।  मगर कोई मनुष्य  जन्म के साथ मनुष्य नहीं होता।  मनुष्यता अर्जित करनी होती है।  यही मनुष्य का भेद है। इस सारी पृथ्वी पर यही मनुष्य की गरिमा है, गौरव है। और यही मनुष्य का संताप और पीड़ा भी। तुम कुत्ते से यह नहीं कह सकते  कि तुम पूरे कुत्ते नहीं हो।  कहो, तुम्हीं को खुद भद्दा लगेगा  कि यह किस तरह की बात है।  सब कुत्ते पूरे कुत्ते हैं।  लेकिन तुम किसी आदमी से कह सकते हो  कि भाई, तुम पूरे आदमी नहीं हो।  और इसमें कुछ असंगति नहीं होगी,  कुछ गलती नहीं होगी। अधिक लोगों के संबंध में यही सत्य है  कि वे पूरे आदमी नहीं हैं ।  कुत्ता तो पूरा का पूरा पैदा होता है।  तुमने देखा होगा?  मनु

प्रेम क्या है

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एक बौद्ध कथा है,  एक बौद्ध भिक्षु एक गांव से गुजरता है।  उसे एक वेश्या ने देखा और  वह मोहित हो गई।  संन्यासी और वेश्या दो विपरीत छोर हैं  और विपरीत छोरों में बड़ा आकर्षण होता है।  वेश्या को साधारण सांसारिक व्यक्ति  बहुत आकर्षित नहीं करता;  क्योंकि वह तो उसके पैर दबाता रहता है,  सदा दरवाजे पर खड़ा रहता है  कि कब बुला ले।  वेश्या बड़ी सुंदर थी। भिक्षु वहां से गुजर गया।  वह द्वार पर खड़ी रही।  भिक्षु ने आंख उठाकर भी न देखा वह कहीं और लीन था,  किसी और ही दुनिया में था,  वेश्या भागी और भिक्षु को रोका भिक्षु रुक गया,  लेकिन उसके चेहरे पर  कोई हवा का झोंका भी न आया,  आंख में कोई वासना की झलक न आई।  वह वैसे ही खड़ा रहा।  उस वेश्या ने कहा,  क्या मेरा निमंत्रण स्वीकार करोगे  एक रात मेरे घर रुक जाओ?  उस भिक्षु ने कहा,  आऊंगा जरूर आऊंगा  लेकिन तब, जब जरूरत होगी।  वेश्या कुछ समझी नहीं,  वह समझी कि शायद  भिक्षु को अभी जरूरत नहीं है।  लेकिन भिक्षु तो  कुछ और ही बात कह रहा था।  और ठीक ही है,  भिक्षु और वेश्या की भाषा  इतनी अलग  कि समझना मुश्किल।  वेश्या दुखी, पराजित महसूस कर रही थी। क्योंकि यह

जैसी करनी वैसा फल,आज नहीं तो निश्चित कल।

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YouTube पर इसे देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें https://youtu.be/-HLQg08VKGA जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चित कल। बेईमानी का पैसा शरीर के एक एक अंग फाड़कर निकलता है। पंजाब के 'खन्ना' नामक शहर में रहने वाले रमेश चंद्र शर्मा नामक व्यक्ति की कहानी है। वह एक मेडिकल स्टोर चलाते थे।  इन्होंने अपने जीवन की एक घटना सुनाई है जो आपकी भी आँखें भी खोल सकता है, और जिस पाप में जिसमें रमेश शर्मा भागीदार बने, उससे आपको बचा सकता है। रमेश चंद्र शर्मा का मेडिकल स्टोर काफी पुराना और अच्छी स्थिति में था।  लेकिन जैसे कि कहा जाता है कि *धन एक व्यक्ति के दिमाग को भ्रष्ट कर देता है* और यही बात रमेश चंद्र जी के साथ भी घटित हुई। उनका मेडिकल स्टोर बहुत अच्छी तरह से चलता था। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। इसी मेडिकल की कमाई से उन्होंने जमीन और कुछ प्लॉट खरीदे और एक लेबोरेटरी भी खोल ली। वह कहते हैं कि वे एक बहुत ही लालची किस्म  के आदमी थे क्योंकि मेडिकल फील्ड में दोगुनी नहीं बल्कि कई गुना कमाई होती है। ज्यादातर लोग इस बारे में नहीं जानते होंगे कि मेडिकल प्रोफेशन में 10 रुपये में आने वा

मन को जीतना ही सबसे बड़ा तप है

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इसे YouTube पर देखने के लिए इस लिंक 👇 पर क्लिक करें https://youtu.be/RxqAYCZLN04 एक समय एक ऋषि घूमते-घूमते नदी के तट पर पहुंच गए। मुनि को मौज आई कि आज हम भी नाव पर बैठकर नदी की सैर करें और प्रभु की प्रकृति के दृश्यों को देखें'।  देखने के विचार से चढ़ बैठे नाव पर और चले गए नाव के नीचे के खाने में जहां नाविक का सामान और निवास होता है।  जाते ही उनकी दृष्टि एक कुमारी कन्या पर पड़ी जो नाविक की बेटी थी। वह इतनी रुपवती थी कि ऋषि मोहित हो गया, उसे मूर्च्छा सी आ गई। उस कुंआरी कन्या ने पूछा―'मुनिवर ! क्या हो गया' ? *मुनि बोला― 'देवी ! मैं तुम्हारे सौन्दर्य पर इतना मोहित हो गया कि मैं अपनी सुध-बुध खो रहा हूं। अब मेरा मन तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। मेरा जीवन मृत्यु तुम्हारे आधीन है। वह कन्या बोली -- आपका कथन सत्य है, परन्तु मैं तो नीच जाति की हूं।' मुनि बोले ― मुझमें यह सामर्थ्य है कि मेरे स्पर्श से तुम शुद्ध हो जाओगी। कन्या बोली― पर अभी तो दिन है। मुनि बोले― मैं अभी रात कर देता हूं।' कन्या बोली― फिर भी हम अभी  नदी में है।' मुनि बोले ―'मैं अभी इसे रेत बन

अनमोल जीवन

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💎💎 अनमोल जीवन💎💎 सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी पीकर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा―"हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा।" लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा।* लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा―"मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था।" राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि "इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ?" अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान बाग उसको सौंप दिया। लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे। जीवन कट जाएगा।* यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा। थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर उद्यान बगीचा एक वीराना बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।       राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल द

*निर्बल के बल राम*

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लाओत्से एक बाजार से गुजर रहा है। बाजार से होकर एक बैलगाड़ी जा रही है। बाजार में बड़ी भीड़ थी। अचानक बैलगाड़ी उलट गई। दुर्घटना हो गई, मालिक की हड्डी-पसलियां टूट गई हैं। बैल तक बुरी तरह आहत हुए, गाड़ी चकनाचूर हो गई गाड़ी में एक छोटा बच्चा भी था; लेकिन उसे कोई नुक़सान ना हुआ  तुमने अक्सर देखा होगा, कभी किसी मकान में आग लग गई  सब जल गया, और एक छोटा बच्चा बच गया। कभी कोई छोटा बच्चा दस मंजिल ऊपर से गिर जाता है, और खिलखिला कर खड़ा हो जाता है, और चोट नहीं लगती।  लोगों में कहावत है,  जाको राखे साइयां मार सके न कोए।  इसमें परमात्मा का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि परमात्मा को क्या भेद, कौन छोटा, कौन बड़ा! नहीं, राज कुछ और है। वह लाओत्से जानता है।  बच्चा कमजोर है। अभी बच्चा सख्त नहीं हुआ। अभी उसकी हड्डियां पथरीली नहीं हुईं। अभी उसकी जीवन-धार तरल है। जितनी हड्डियां मजबूत हो जाएंगी उतनी ही ज्यादा चोट लगेगी।  बैलगाड़ी उलटेगी, तो बूढ़े को ज्यादा चोट लगेगी, बच्चे को न के बराबर। क्योंकि बच्चा इतना कोमल है; जब गिरता है जमीन पर तो उसका कोई प्रतिरोध नहीं होता जमीन से। वह जमीन के खिलाफ अपने को बचाता नहीं

तू साक्षी हो जा

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YouTube पर इसे देखने के लिए इस लिंक 👇 पर क्लिक करें https://youtu.be/cvLQifc5_Ug 🙏🙏🌹🌹🙏🙏 चिंता का अर्थ क्या है? चिंता का अर्थ ही  यह है  कि  बोझ मुझ पर है।  पूरा कर पाऊंगा या नहीं। तुम साक्षी हो जाओ। कृष्ण ने गीता में  यही बात  अर्जुन से कही है  कि  तू कर्ता मत हो।  तू निमित्त-मात्र है;  वही करने वाला है।  जिसे उसे मारना है,  मार लेगा।  जिसे नहीं मारना है,  नहीं मारेगा।  तू बीच में मत आ।  तू साक्षी भाव से  जो आज्ञा दे,  उसे पूरी कर दे। परमात्मा कर्ता है-- और हम साक्षी।  फिर अहंकार विदा हो गया।  न हार अपनी है,  न जीत अपनी है।  हारे तो वह,  जीते तो वह।  न पुण्य अपना है,  न पाप अपना है।  पुण्य भी उसका,  पाप भी उसका।  सब उस पर छोड़ दिया।  निर्भार हो गए।  यह निर्भार दशा संन्यास की दशा है। ‘जा घट चिंता नागिनी, ता मुख जप नहिं होय।’  और जब तक चिंता है,  तब तक जप नहीं होगा। तब तक कैसे करोगे ध्यान?  कैसे करोगे हरि-स्मरण?  चिंता बीच-बीच में आ जाएगी।  तुम किसी तरह  हरि की तरफ मन ले जाओगे,  चिंता खींच-खींच संसार में ले आएगी। तुमने देखा होगा  कि जब कोई चिंता  तुम्हारे मन में होती है

🕉️ *🌻अंत समय के बोल*🌻

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YouTube पर इसे देखने के लिए इस लिंक 👇 पर क्लिक करें https://youtu.be/UtMl3RLhdBM *एक सज्जन ने  तोता पाल रखा था  और उससे  बहुत स्नेह करते थे,  एक दिन  एक बिल्ली  उस तोते पर झपटी  और तोता उठा कर ले गई  वो सज्जन रोने लगे  तो लोगो ने कहा:  प्रभु आप क्यों रोते हो?  हम आपको दूसरा तोता ला देते हैं  तो वो सज्जन बोले:  मैं तोते के दूर जाने पर  नही रो रहा हूं।* लोगों ने पूछा गया:  फिर क्यों रो रहे हो?* वो कहने लगे:  दरअसल बात ये है कि  मैंने उस तोते को  रामायण की चौपाइयां सिखा रखी थी  वो सारा दिन चौपाइयां  बोलता रहता था  आज जब बिल्ली  उस पर झपटी  तो वो चौपाइयाँ भूल गया  और टाएं टाएं करने लगा।  अब मुझे  ये फिक्र खाए जा रही है  कि रामायण तो मैं भी पढ़ता हूँ  लेकिन  जब यमराज मुझ पर झपटेगा,  तो न मालूम मेरी जिव्हा से  रामायण की चौपाइयाँ निकलेंगी या तोते की तरह टाएं-टाएं निकलेगी। इसलिए ज्ञानी महापुरुष कहते हैं  कि  विचार-विचार कर  तत्त्वज्ञान और रुपध्यान  इतना पक्का कर लो  कि हर समय,  हर जगह  भगवान के सिवाय  और कुछ दिखाई न दे,  हर समय जिव्हा पर  राधे-राधे या   राम-राम चलता रहे।  अन्तिम स

*मनुष्य जन्म से विक्षिप्त है*

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एक गांव में ऐसा हुआ था, एक जादूगर आया और उसने गांव के कुएं में कोई मंत्र फेंका और कहा कि इस कुएं का पानी जो कोई भी पीएगा वह पागल हो जाएगा। उस गांव में दो ही कुएं थे। एक गांव का कुआं था और एक सम्राट का कुआं था। सारे गांव को, उस कुएं का पानी पीना पड़ा। मजबूरी थी, कोई रास्ता न था। प्यास लगे और अगर पागल भी होना पड़े तो भी पानी तो पीना ही पड़ेगा। सांझ होते-होते सारा गांव पागल हो गया। सिर्फ सम्राट बच गया, उसका वजीर बच गया, उसकी रानी बच गई। सम्राट बहुत प्रसन्न था कि सौभाग्य है हमारा कि हमारे घर में अलग कुआं है। लेकिन सांझ होते-होते उसे पता चला कि सौभाग्य नहीं, यह दुर्भाग्य है। क्योंकि जब सारा गांव पागल हो गया, तो गांव में जगह-जगह यह चर्चा होने लगी कि मालूम होता है राजा पागल हो गया। और शाम होते-होते सारे गांव के लोग महल के सामने इकट्ठे हो गए और उन्होंने कहा, पागल राजा को अलग करना जरूरी है। क्योंकि पागल राजा से कैसे देश चलेगा। राजा अपनी छत पर खड़ा घबड़ाने लगा। उसके सैनिक भी पागल हो गए थे, उसके पहरेदार भी पागल हो गए थे, उसके रक्षक भी पागल हो गए थे। और वे सभी पागल यह कह रहे थे कि सम्राट पा

!! अच्छाई की तलाश करें !!

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  किसी गाँव में  एक किसान को  बहुत दूर से  पीने के लिए  पानी भरकर लाना पड़ता था.  उसके पास दो बाल्टियाँ थीं  जिन्हें वह  एक डंडे के  दोनों सिरों पर बांधकर  उनमें तालाब से पानी भरकर  लाता था.  उन दोनों बाल्टियों में से  एक के तले में एक छोटा सा छेद था  जबकि दूसरी बाल्टी  बहुत अच्छी हालत में थी.  तालाब से घर तक के रास्ते में  छेद वाली बाल्टी से  पानी रिसता रहता था  और घर पहुँचते-पहुँचते  उसमें आधा पानी ही बचता था.  बहुत लम्बे अरसे तक  ऐसा रोज़ होता रहा  और किसान सिर्फ डेढ़ बाल्टी पानी  लेकर ही घर आता रहा. अच्छी बाल्टी को  रोज़-रोज़ यह देखकर  अपने पर घमंड हो गया.  वह छेदवाली बाल्टी से कहती थी  कि मैं तुझसे अच्छी हूं, मेरे से  ज़रा सा भी पानी  नहीं रिसता.  छेदवाली बाल्टी को  यह सुनकर बहुत दुःख होता था  और उसे अपनी कमी पर  लज्जा आती थी.  छेदवाली बाल्टी  अपने जीवन से  पूरी तरह निराश हो चुकी थी.  एक दिन रास्ते में  उसने किसान से कहा –  “मैं अच्छी बाल्टी नहीं हूँ.  मेरे तले में  छोटे से छेद के कारण  पानी रिसता रहता है  और तुम्हारे घर तक पहुँचते-पहुँचते  मैं आधी खाली हो जाती हूँ.” क

असली सवाल ओशो

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चीन में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ। वह अपने गुरु के पास गया  तो गुरु ने उससे पूछा  कि तू सच में संन्यासी हो जाना चाहता है  कि संन्यासी दिखना चाहता है?  उसने कहा कि जब संन्यासी ही होने आया हूं तो दिखने का क्या करूंगा?  संन्यासी होना चाहता हूं।  तो गुरु ने कहा,  फिर ऐसा कर,  यह अपनी आखिरी मुलाकात हुई।  पाँच सौ संन्यासी हैं इस आश्रम में  तू उनका चावल कूटने का काम कर।  अब दुबारा यहां मत आना।  जब जरूरत जब होगी, मैं आ जाऊंगा। कहते है,  बारह साल बीत गए।  वह संन्यासी अंधेरे घर में चावल कूटता रहा।  पांच सौ संन्यासी थे।  सुबह से उठता, चावल कूटता रहता।  रात थक जाता, तो सो जाता।  बारह साल बीत गए।  वह कभी  गुरु के पास दुबारा नहीं गया।  क्योंकि  जब गुरु ने कह दिया,  तो बात खतम हो गयी।  जब जरूरत होगी  वे आ जाएंगे,  भरोसा कर लिया।  कुछ दिनों तक तो पुराने खयाल चलते रहे,  लेकिन जब चावल ही कूटना हो दिन—रात  तो पुराने खयालों को  चलाने से फायदा भी क्या?  धीरे—धीरे पुराने खयाल विदा हो गए।  उनकी पुनरुक्ति में कोई अर्थ न रहा।  खाली हो गए, जीर्ण—शीर्ण हो गए।  बारह साल बीतते—बीतते तो  उसके सारे विचार विदा