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Showing posts from February 7, 2021

जा घट चिंता नागिनी

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🙏🙏🌹🌹🙏🙏 चिंता का अर्थ क्या है? चिंता का अर्थ ही  यह है  कि  बोझ मुझ पर है।  पूरा कर पाऊंगा या नहीं। तुम साक्षी हो जाओ। कृष्ण ने गीता में  यही बात  अर्जुन से कही है  कि  तू कर्ता मत हो।  तू निमित्त-मात्र है;  वही करने वाला है।  जिसे उसे मारना है,  मार लेगा।  जिसे नहीं मारना है,  नहीं मारेगा।  तू बीच में मत आ।  तू साक्षी भाव से  जो आज्ञा दे,  उसे पूरी कर दे। परमात्मा कर्ता है-- और हम साक्षी।  फिर अहंकार विदा हो गया।  न हार अपनी है,  न जीत अपनी है।  हारे तो वह,  जीते तो वह।  न पुण्य अपना है,  न पाप अपना है।  पुण्य भी उसका,  पाप भी उसका।  सब उस पर छोड़ दिया।  निर्भार हो गए।  यह निर्भार दशा संन्यास की दशा है। ‘जा घट चिंता नागिनी, ता मुख जप नहिं होय।’  और जब तक चिंता है,  तब तक जप नहीं होगा। तब तक कैसे करोगे ध्यान?  कैसे करोगे हरि-स्मरण?  चिंता बीच-बीच में आ जाएगी।  तुम किसी तरह  हरि की तरफ मन ले जाओगे,  चिंता खींच-खींच संसार में ले आएगी। तुमने देखा होगा  कि जब कोई चिंता  तुम्हारे मन में होती है,  तब बिल्कुल प्रार्थना नहीं कर पाते।  बैठते हो, ओठ से राम-राम जपते हो  और भीतर चि

मेरे तो गिरधर गोपाल --- ओशो

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YouTube पर इसे देखने के लिए 👇 लिंक पर क्लिक करें https://youtu.be/mmN-Il3Pmi4 मेरे तो गिरधर गोपाल मनुष्य की खोज क्या है?  मनुष्य की खोज है:  अपने घर की खोज।  यहां परदेश है।  यहां सब वीराना है।  अपना यहां कुछ भी अपना नहीं।   यहां से जाना है।   जो थोड़ा-बहुत  अपना मान लोगे,  वह भी  मौत छीन लेगी।  यहां घर तो कोई कभी बना नहीं पाया।  यहां घर उजड़ने को ही बनते हैं।  यहां हम ही नहीं टिक पाते,  तो हमारे बनाए घर  कैसे टिकेंगे?  यहां की गई मेहनत तो व्यर्थ जाती है। ***************************** आदमी की खोज  उस घर की खोज है,  जो मिले  तो सदा के लिए मिल जाए। आदमी की खोज  उस घर की खोज है  जो सच में घर हो,  सराय न हो।  यहां तो सब सरायें हैं,  धर्मशालाएं हैं–  बस रैनबसेरा है।  सुबह हुई,  चल पड़ना होगा।  बहुत मोह मत लगा लेना।  सराय से बहुत ममता  न बिठा लेना।  यह छूट ही जाना है।  यह छूटा ही हुआ है।  तुमसे पहले  बहुत लोग यहां ठहरे  और गए;  तुम भी उसी कतार में हो। इसलिए  चाहे यहां कितना ही धन हो,  कितना ही पद हो,  प्रतिष्ठा हो;  फिर भी तृप्ति नहीं मिलती।  तृप्ति यहां मिलती ही नहीं।  तृप्ति का  स

परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग-- ओशो

*न संदेह कर सकता हूँ नहीं श्रद्धा, मुझे क्या करना चाहिए?* कभी तुमने नाव चलाई?  एक पतवार से  चला कर देखना।  अगर चलाओगे, तो नाव गोल-गोल घूमेगी।  वहीं की.वहीं  चक्कर काटेगी,  कहीं जाएगी नहीं।  और आदमी  जैसी नाव चला रहा है,  वह एक पतवार की नाव है।  उसमें आदमी  अकेला ही चला रहा है,  परमात्मा का हाथ नहीं है।  परमात्मा को तुमने  काटकर  अलग कर दिया है।  तुम अकेले ही  चला रहे हो।  वह गोल-गोल घूमती है।  एक दुष्ट चक्र  पैदा हो जाता है--  वहीं-वहीं पुनरुक्ति करती है,  कहीं जाती नहीं,  कहीं यात्रा नहीं होती,  कोई मंजिल नहीं आती। ************************* अब  इस पतवार को भी रख लो।  इससे कोई सहारा नहीं है।  इसको भी नाव में रख लो।  अब तो तुम  पाल खोल दो नाव का।  और परमात्मा को कहो,  जहां तेरी मर्जी,  जहां तेरी हवाएं ले जाएं,  अब हम वहीं जाएंगे। ********************* नाव को चलाने के  दो ढंग हैं :  एक तो पतवार से,  और एक पाल से।  रामकृष्ण से  कोई पूछता था,  मैं क्या करूं?  तो रामकृष्ण ने कहा,  तुम कुछ मत करो।  तुम काफी कर चुके हो।  बहुत उपद्रव हो गया है।  अब तुम पाल खोल दो  और पतवार रख लो।  रामकृष्ण ने

क्या होता है अशांत मन -- ओशो

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YouTubeपर इसे देखने के लिए 👇 पर क्लिक करें https://youtu.be/LhSim2lw3SM सुकरात को  उसके मरने के पहले  कुछ मित्रों ने पूछा कि  तुम स्वर्ग जाना पसंद करोगे  या नरक?  तो सुकरात ने कहाः  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता  कि मैं कहां भेजा जाता हूं,  मैं जहां जाऊंगा  वहां  मैं स्वर्ग का अनुभव  करने में समर्थ हूं।  इससे कोई भेद नहीं पड़ता  कि मैं कहां जाता हूं,  मैं जहां जाऊंगा  अपना स्वर्ग  अपने साथ ले जाऊंगा। ***************************** हर आदमी  अपना स्वर्ग या नरक  अपने साथ लिए हुए है।  और वह उसी मात्रा में  अपने साथ लिए हुए है,  जिस मात्रा में  उसका मन शांत हो जाता है,  शब्दों की भीड़ से  मुक्त हो जाता है,  मौन हो जाता है।  जितनी गहरी  साइलेंस होती है,  उतना ही  उसके बाहर  एक स्वर्ग का घेरा,  एक स्वर्ग का वायुमंडल  उसके आस-पास  चलने लगता है।  इसलिए  यह हो सकता है कि  एक ही साथ बैठे हुए लोग,  एक ही जगह पर न हों;  यह हो सकता है  कि  आपके पड़ोस में  जो व्यक्ति बैठा है  वह स्वर्ग में हो  और आप नरक में।  यह  इस बात पर निर्भर करेगा  कि उसका मन कैसा है?  उसके मन की  आंतरिक दशा कैसी है?  उस आंतर

तुम गलत हो -- ओशो

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 अकबर के समय में एक धार्मिक व्यक्ति  तीर्थयात्रा पर गया।  उन दिनों  बड़े खतरे के दिन थे।  संपत्ति को पीछे छोड़ जाना  और अकेला ही आदमी था,  बच्चे—पत्नी भी नहीं थे,  काफी संपदा थी।  तीर्थयात्रा पर जाने से पहले वह अपने एक मित्र, जिस पर भरोसा था, के पास अपनी संपत्ति रख गया,   और कहा  कि अगर जीवित लौट आया, तो मुझे लौटा देना अगर जीवित न लौटूं,  तो इसका जो भी सदुपयोग बन सके  कर लेना।  पुराने दिनों में बहुत लोग तीर्थ से लौट भी नहीं पाते थे।  वह लंबी मानसरोवर की यात्रा पर गया था।  पर भाग्य से जीवित वापस लौट आया।  मित्र ने तो मान ही लिया था  कि वह लौटेगा नहीं।  लेकिन जब वह लौट आया,  तो अड़चन हुई।  संपत्ति काफी थी  और मित्र को वापस लौटाना मुश्किल लगा।  मित्र पलट गया।  उसने कहा कि तुम संपत्ति रख ही नहीं गए!  कैसी बातें करते हो?  तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया  कोई गवाह भी नहीं था।  बात अकबर की अदालत तक पहुंची।  एक भी गवाह नहीं,  उपाय भी नहीं कोई।   यह आदमी कहता है, रख गया।  और दूसरा आदमी कहता है,  नहीं रख गया। अब कैसे निर्णय हो?  अकबर ने बीरबल से सलाह ली।  बीरबल ने, उस आदमी से जो रुपए

मैं अकेला ही काफी हूं-- ओशो

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YouTube video का लिंक https://youtu.be/xEre1dQmaPI  अगर तुमने  इस बात का निर्णय कर लिया है  कि तुम सत्य के साथ हो  तो इस दुनिया में  सबसे बड़ी ताकत  तुम्हारे साथ है।  तुम अकेले नहीं हो।  इस दुनिया का आधार  तुम्हारे साथ है,  अस्तित्व तुम्हारे साथ है। मुझे  न तो बुद्धिजीवियों की चिंता है, और न धर्मगुरुओं की चिंता है। मुझे चिंता है  तो सिर्फ एक बात की  कि कभी भूलकर भी  मैं अपनी आत्मा को न बेचूं।  कभी भूलकर भी  मैं सत्य को भी न बेचूं।  मौत को स्वीकार कर लूं  लेकिन  सत्य से मेरा साथ न छूटे। मैं चाहता हूं कि  तुम सब आशीर्वाद दो मुझे। मौत वरणीय है  लेकिन सत्य छोड़ा नहीं जा सकता।  मैं अकेला काफी हूं।  तुम्हारा आशीर्वाद पर्याप्त है। मैं अकेला ही काफी हूं इस दुनिया में। सबसे बड़ा दुख  आदमी को तब होता है  जब उसके झूठ  उससे छीने जाते हैं– जिनको वह सत्य समझता था और जिनके सहारे  वह सोचता था  कि उसके पास सबकुछ है। YouTube पर देखने के लिए इस लिंक 👇 https://youtu.be/xEre1dQmaPI  पर क्लिक करें। कृपया चैनल को Subscribe भी कर दें। धन्यवाद 🙏🙏🙏

समाधि-- ओशो

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 एकांत, मौन और ध्यान समाधि के उपाय हैं।  ये समाधि के तीन चरण हैं। अपने को अकेला जानो।  अकेले आए हो,  अकेले जाओगे,  अकेले हो।  संग—साथ सब झूठ है।  संग—साथ सब खेल है।  संग—साथ सब मान्यता है, मानी हुई बात है।  कौन किसका है?  कोई किसी का नहीं है? इस भाव को गहन कर लेने का नाम एकांत है।_ मैं अकेला हूं  मैं अकेला हूं  ऐसा श्वास—श्वास में रम जाए।  मैं अकेला हूं —ऐसा हृदय की धड़कनों में बस जाए। मैं अकेला हूं—यह बात इतनी प्रगाढ़ होकर बैठ जाए कि कभी भूले न,  क्षणभर को न भूले। यही संसार से मुक्ति है। यह नहीं कि तुम किसी को छोड़कर जाओ।  यह जानना कि मैं अकेला हूं। पत्नी है, तो रहे। बेटे हैं, तो रहें। घर है, तो रहे। लेकिन मैं अकेला हूं। भरे घर में तुम अकेले हो जाओ। भरी भीड़ में तुम अकेले हो जाओ। यह सारा संसार चल रहा है और मैं अकेला हूं ।  यह एकांत की भाव— भंगिमा है। और जब अकेला हूं  तो बोलना क्या है!  किससे बोलना है?  क्या बोलना है?  तो एक चुप्पी अपने आप उतरने लगेगी। और जब चुप होने लगे, तो भीतर भी क्या सोचना?  आदमी को बोलना होता है, तो सोचता है।  बोलना तभी होता है,  जब सोचता है कि दूसरे हैं।

आत्मा और परमात्मा

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 ईश्वर और आत्मा क्या है?  क्या आत्मा ही परमात्मा है? मैं कोई उत्तर दूं  तो गलत होगा।  क्योंकि मैंने कहा  कि आत्मा और परमात्मा के संबंध में  बाहर से कोई कुछ भी नहीं दे सकता।  अगर मैं खुद ही कोई उत्तर दूं  तो मैं अपनी ही बात की  गलती में चला जाऊंगा। ******************************* मैं आपको नहीं कहता  कि आत्मा क्या है  और परमात्मा क्या है,  मैं आपको इतना ही कहता हूं  कि कैसे उन्हें जाना जा सकता है। ******************************* आत्मा क्या है,  यह कहना  बिलकुल संभव नहीं है।  आज तक संभव हुआ नहीं‌ है। किसी व्यक्ति ने  इस जगत में  यह नहीं कहा  कि आत्मा क्या है। ******************************* जो उस सत्य के प्रति जागे हैं   उन्होंने यही बताया  कि हम कैसे जागे हैं;  मैं आपको नहीं कहूंगा कि आत्मा क्या है।  मैं तो यही कहूंगा  कि जो कुछ अभी अज्ञात है  वह ज्ञात हो सकता है।  ज्ञात होने की विधि  यह है  कि उसके संबंध में कोई विचार परिपक्व न करें,  समस्त विचार छोड़कर  शून्य हो जाएं  और साक्षी बन जाएं। ******************************* मैं भी  एक विचार आपको दे दूं,  तो उससे कोई अर्थ न होगा। 

आदमी की कमजोरियां -- ओशो

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 एक राजा ने दरबार में  सुबह ही सुबह  दरबारियों को बुलाया ।  उसके दरबार में अचानक एक अजनबी यात्री आया।  वह किसी दूर देश का रहने वाला था। उसके वस्त्र पहचाने हुए से मालूम नहीं पड़ते थे । उसकी शक्ल भी अपरिचित थी ,  लेकिन वह बड़े गौरवशाली व्यक्तित्व का धनी मालूम होता था।  सारे दरबार के लोग उसकी तरफ देख रहे थे ।  उसने एक बड़ी शानदार पगड़ी पहन रखी थी ।  वैसी पगड़ी उस देश में कभी नही देखी गयी थी । वह बहुत रंग – बिरंगी और छापेदार थी ।  ऊपर चमकदार चीजे लगी थी ।  राजा ने उससे पूछा – अतिथि ! क्या मै पूछ सकता हूं कि यह पगड़ी कितनी महंगी है और कहा से खरीदी गयी है ?  उस आदमी ने कहा – यह बहुत महंगी पगड़ी है । इसके लिए मुझे एक हजार स्वर्ण मुद्रा खर्च करनी पड़ी है । वजीर राजा की बगल में बैठा था। वजीर स्वभावतः चालाक होते है , नही तो उन्हें कौन वजीर बनाएगा ? उसने राजा के कान में कहा – सावधान ! यह पगड़ी बीस – पच्चीस रुपये से ज्यादा की नही मालूम पड़ती ।  यह हजार स्वर्ण मुद्रा बता रहा है ।  इसका लूटने का इरादा है । उस अतिथि ने भी वजीर को , जो राजा के कान में कुछ कह रहा था , उसके चेहरे से पहचान लिया।  लेकिन

अहंकार का रोग --- ओशो

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YouTube video का लिंक https://youtu.be/ZSMvW-NZYF8  मैंने सुना है,  एक आदमी मरने जा रहा था।  जिस नदी के किनारे वह मरने गया,  एक सूफी फकीर बैठा हुआ था।  फकीर ने कहा क्या कर रहे हो?'  वह आदमी जो  कूदने ही वाला था,  उसने कहा  अब रोको मत,  बहुत हो गया!  जिंदगी में कुछ भी नहीं,  सब बेकार है!  जो चाहा, मिला नहीं जो नहीं चाहा,  वही मिला।  परमात्मा मेरे खिलाफ है।  मैं क्यों स्वीकार करूं यह जीवन?' उस फकीर ने कहा,  ऐसा करो,  एक दिन के लिए रुक जाओ,  फिर मर जाना।  इतनी जल्दी क्या?  तुम कहते हो,  तुम्हारे पास कुछ भी नहीं?' उसने कहा, ' कुछ भी नहीं!  कुछ होता  तो मरने क्यों आता?' उस फकीर ने कहा, ' तुम मेरे साथ आओ।  इस गांव का राजा  मेरा मित्र है।’ फकीर उसे ले गया।  उसने सम्राट के कान में कुछ कहा।  सम्राट ने कहा,  'एक लाख रुपये दूंगा।’  उस आदमी ने  इतना ही सुना;  फकीर ने  राजा के कान में  क्या कहा  वह नहीं सुना।  सम्राट ने कहा,  फकीर आया  और उस आदमी के कान में बोला  कि सम्राट तुम्हारी दोनों आंखें एक लाख रुपये में खरीदने को तैयार है।  बोलो, बेचते हो? उस आदमी ने क

जिंदगी तो मिली, पर जीना ना आया -- ओशो

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YouTube videos का लिंक https://youtu.be/rAg3koefcSo  मैंने सुना है,  एक महिला को सितार सीखने की धुन सवार हुई।  तो पहले ही दिन चाहती थी कि मेघ-मल्हार हो जाये।  पहले दिन चाहती थी कि पशु-पक्षी आ जायें।  बार-बार जाकर  खिड़की पर देख आती थी,  अभी तक कोई नहीं आया।न कोई भीड़ जुटी।  उलटे पति जो घर में बैठा था  वह निकलकर बाहर चला गया।  बच्चे  जो घर में ऊधम कर रहे थे,  वे भी कहीं निकल गये।  पास-पड़ोसियों ने द्वार-दरवाजे बंद कर लिये।  तो उसने समझा कि  निश्चित ही सितार में कुछ भूल है।  जिस दुकान से  सितार खरीद लाई थी,  उसे फोन किया  कि आदमी भेजो,  सितार में कुछ गड़बड़ है।  आदमी आया, सितार ठोक-पीटकर  उसने कहा, यह तो बिलकुल ठीक है।  आदमी वापस पहुंचा भी नहीं था  कि फिर फोन…उसने कहा,  “भई इतनी जल्दी कैसे बिगड़ गया?’  उस महिला ने कहा  कि न बजाओ तो सब ठीक रहता है,  लेकिन बजाओ कि सब गड़बड़!  तब उस आदमी को समझ में आया।  उसने कहा कि  “देवी! बजाना भी आता है या नहीं सितार की भूल नहीं है– बजाना आता है कि नहीं! कहते हैं,  परम संगीतज्ञ,  जिनको बजाने की कला आ जाती है,  अगर बर्तनों को भी बजा दें  तो सितार बज उ