"रामकाज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम"

एक राजा की कोई संतान न थी। वह सदा इस बात की चिंता करता था कि उसके मरने के बाद, यह राज्य कौन संभालेगा?
जब वह राजा बहुत बूढ़ा हो गया, तब वह अपने गुरूजी के दरवाजे पर पहुँचा, जो एक ऊँचे पर्वत के शिखर पर रहते थे। उसने गुरूजी के सामने अपनी चिंता रखी।

गुरूजी ने कहा- महाराज! आप चिंता न करें। आप कुछ दिन यहीं रुकें। मैं व्यवस्था करता हूँ कि आप इस राज्य के होने वाले राजा को लेकर ही राजधानी लौटें।
गुरूजी ने प्रधानमंत्री से मंत्रणा कर पूरे राज्य में सूचना भिजवा दी कि जो भी नवयुवक स्वयं को इस राज्य के राजपद के योग्य समझते हों, वे सात दिन के भीतर इस पर्वत के शिखर पर पहुँचें। 
यहाँ उनकी योग्यता को परख कर, सुपात्र को राजा बनाया जाएगा और जो राजा न बन पाएँगे, उन्हें मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। 
हालाँकि यह शर्त वास्तविक नहीं थी, केवल उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति को परखने के लिए ही ऐसा प्रचार किया जा रहा था।
बहुत से युवक चले। उन्हें रास्ते में भिन्न भिन्न जगह, भिन्न भिन्न मंत्री, शिविर लगाए मिलते थे। वे उन्हें रोकते और प्रलोभन देते। 
वे कहते- देखो! राजा तो कोई एक ही बनेगा। मालूम नहीं कौन बने, कौन नहीं? अगर तुम यह विचार त्याग दो तो तुम्हें अभी सूबेदार या कुछ और बना दिया जाएगा।
मंत्रियों की बात सुनकर, युवक विचार में पड़ जाते कि चार दिन का जीवन है। कल का क्या भरोसा? 
राजा न बन सके, तब तो मरना ही है, 
राजा बन भी गए तो 
चौबीसों घंटे परेशानी ही झेलनी पड़ेगी।
न नौ नकद न तेरह उधार। 
आज सूबेदारी मिल रही है, कल यह भी नहीं मिलेगी। आज भाग्य साथ दे रहा है।
इस प्रकार उनमें से कोई तो सूबेदार बन गया, कोई जिलेदार, कोई सेनापति, कोई कुछ और बन गया।
एक ही युवक पर्वत के शिखर तक पहुँचा। 
वह, जो किसी प्रलोभन में न फंसा। 
जिसका लक्ष्य सुख भोगना नहीं, राष्ट्र की सेवा करना था। "लक्ष्य प्राप्त करूंगा या प्राण त्याग दूंगा" 
ऐसा उसका संकल्प था, जो कहीं रुका ही नहीं, जो सीधे राजा के पास पहुँच गया, वह राजा बन गया।

जो साधक, उस युवक ही की तरह, सांसारिक प्रलोभन में नहीं फंसता। 
कमाना, खाना और पैखाना ही 
जिसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य नहीं है। 
जिसका संकल्प "रामकाज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम" हो
वही परमात्मा के दरबार का उत्तराधिकारी है।

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