अद्भुत साहस ओशो
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एक पहाड़ पर एक मंदिर था। यह सोने का बना मंदिर था, महुमूल्य हीरे-ज्वाहरात और खजाने उस मंदिर के पास थे। वह शक्ति साधना का मंदिर था।
जब इस मंदिर का वृद्ध पुजारी मरने को हुआ तो उसने खबर भिजवायी कि नए पुजारी को चुनना है। जो व्यक्ति सर्वाधिक शक्तिशाली होगा- उसकी नियुक्ति हो जाएगी।
पुजारी ने खबर करवायी, निश्चित तिथि पर, जो लोग अपने को शक्तिशाली समझते हों वे पहाड़ की चढ़ाई शुरू करें। जो व्यक्ति सबसे पहले चढ़ाई पर ऊपर पहुंच जाएगा, वही पुजारी हो जाएगा और तय हो जाएगा कि कौन सर्वाधिक शक्तिशाली है?
उस राज्य से दूर दूर तक
जहां-जहां तक खबर हो सकती, थी, फैल गई।
सैकड़ों लोगों के मन में उत्कंठा हुई।
उतना बड़ा मंदिर और स्वर्ण का मंदिर,
अरबों-खरबों की संपत्ति
का मंदिर।
भला उसका पुजारी कौन नहीं होना चाहेगा?
जितने भी शक्तिशाली युवा थे, जिनके मन में आकांक्षा थी, वे सारे लोग इकट्ठे हो गए।
कोई दो सौ जवान,
जो अपनी-अपनी तरह से
सब तरह के शक्तिशाली थे, निश्चित तिथि पर उस पहाड़ पर चढ़ने लगे। हर जवान ने एक बड़ा पत्थार अपने-अपने कंधे पर ले रखा था ।
यह उनके पौरुष का प्रतीक था कि कौन कितने बड़े पत्थर को लेकर चढ़ सकता है। जो जितना शक्तिशाली था उसने उतना ही बड़ा पत्थर अपने कंधे पर ले लिया।
पहाड़ की चढ़ाई शुरू हुई। पहाड़ की चोटी दूर थी और पत्थर भी भारी थे, थोड़ी ही देर में उनके प्राण सूखने लगे। लेकिन उनका अहंकार सब कष्ट सहने को तैयार था। आप पता होना चाहिए, अहंकार बड़ा तपस्वी होता है। बड़ी तपश्चर्या है अहंकार की।
पत्थरों के नीचे दबे जाते थे भूखे-प्यासे ….
एक सप्ताह की चढ़ाई की।
पत्थरों को घसीटते, रोकते,
खाने-पीने की भी फुर्सत न थी,
क्योंकि पहले पहुंचने की जिद थी।
कुछ तो उन पत्थरों के नीचे दबकर मर गए,
लेकिन उन्होंने पत्थर नहीं छोड़े।
मरते दम तक वे पत्थर अपने सिर पर रखे हुए थे। वे उनके पौरुष के प्रतीक थे, वे चिन्ह थे उनकी शक्ति के। कुछ खड्डों में गिर गए, कुछ बीमार पड़ गए, किसी के हाथ-पैर टूट गए।
लेकिन वे बढ़े जाते थे।
किसको फुर्सत थी, उन्हें देखने की, जो गिर गया था।
जो गिर गया, वह गया। हमारी तो आदत है, आगे बढ़ जाने की।
लेकिन आखिरी दिन, साततां दिन करीब आ गया,
सांझ होने लगी।
वे लोग करीब- करीब पहुंचने को हैं।
तभी उन्होंने देखा, जो
बड़ी हैरानी की बात थी,
जो सबसे पीछे रह गया था
वह आदमी एकदम आगे निकला जा रहा है।
दुबला-पतला, कमजोर आदमी-
वह सबसे पीछे था,
वह एकदम आगे निकला जा रहा है।
सब हैरान हो गए, लेकिन सब हंसने लगे उस पर।
उन्होंने सोचा,
इस पागल के पहुंचने का प्रयोजन भी क्या?
उसने पत्थर फेंक दिया था,
बिना पत्थर के भागा जा रहा था।
अब बिना पत्थर के तो किसी की भी गति गढ़ जाएगी। उन्होंने उससे कहा भी
कि तुम नासमझ हो।
तुम कहां भागे जाते हो?
आखिर तुम्हारे पहुंचने का फायदा भी क्या?
तुम पहुंच भी गए तो तुम्हें कौन मानेगा?
पौरुष का प्रतीक कहां है?
लेकिन उसने तो सुना नहीं,
वह भागे चला गया।
वे सब हंसते रहे कि पागल है, नासमझ है।
इसके पहुंचने से कोई फल भी नहीं होने वाला है।
लेकिन जब सांझ को वे वहां पहुंचे
और सारे पर्वतारोहियों की सभा हुई
तो पुजारी ने घोषणा की कि
वह युवक ही सबसे पहले आ गया है
और उसको मैंने पुजारी बना दिया
तो सब चिल्लाए कि कैसा अन्याय है,
कैसा अंधेर है!
उस पूजारी ने कहा, अंधेर भी नहीं है, अन्याय भी नहीं है। परमात्मा के पुजारी होने का हक
केवल उन्हीं को है
जो अपने अहंकार के भार को छोड़ देते हैं।
इस युवक ने अदभुत साहस का परिचय दिया है।
तुम सब भारग्रस्त लोगों के बीच
यह अपने भार को फेंक सका,
निर्बल हो सका,
अपने पौरुष-प्रतीक से छुटकारा पा सका,
अपने अहंकार के भार से
मुक्त हो सका,
निर्भार होकर गति कर सका।
यह अदभुत साहस की बात है।
यह सर्वाधिक बली है
और इसलिए
हमने इसे पुजारी का पद दिया हैं।
यह कथा तो एक प्रतीक है,
लेकिन जीवन में भी यही सत्य है।
जो लोग भी
सत्य की और
परमात्मा की यात्रा में हैं
वे स्मरण रखें
कि जो भार
उन्होंने अपने ऊपर ले रखे हैं
वे सब उनको रोक रहे हैं।
और ज्ञान का भार
सबसे बड़ा भार है
क्योंकि ज्ञान का बोझ
सबसे बड़ा अहंकार है।
ओशो,
आंखे देखी सांच
https://youtu.be/TJH7ciZNI1w
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