मेरे तो गिरधर गोपाल --- ओशो
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मनुष्य की खोज क्या है?
मनुष्य की खोज है:
अपने घर की खोज।
यहां परदेश है।
यहां सब वीराना है।
अपना यहां कुछ भी अपना नहीं।
यहां से जाना है।
जो थोड़ा-बहुत
अपना मान लोगे,
वह भी
मौत छीन लेगी।
यहां घर तो कोई कभी बना नहीं पाया।
यहां घर उजड़ने को ही बनते हैं।
यहां हम ही नहीं टिक पाते,
तो हमारे बनाए घर
कैसे टिकेंगे?
यहां की गई मेहनत तो व्यर्थ जाती है।
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आदमी की खोज
उस घर की खोज है,
जो मिले
तो सदा के लिए मिल जाए।
आदमी की खोज
उस घर की खोज है
जो सच में घर हो,
सराय न हो।
यहां तो सब सरायें हैं,
धर्मशालाएं हैं–
बस रैनबसेरा है।
सुबह हुई,
चल पड़ना होगा।
बहुत मोह मत लगा लेना।
सराय से बहुत ममता
न बिठा लेना।
यह छूट ही जाना है।
यह छूटा ही हुआ है।
तुमसे पहले
बहुत लोग यहां ठहरे
और गए;
तुम भी उसी कतार में हो।
इसलिए
चाहे यहां कितना ही धन हो,
कितना ही पद हो,
प्रतिष्ठा हो;
फिर भी तृप्ति नहीं मिलती।
तृप्ति यहां मिलती ही नहीं।
तृप्ति का
संसार से कोई संबंध ही नहीं है।
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अक्सर ऐसा होता है
कि गरीब को तो
थोड़ी आशा भी रहती है,
अमीर की आशा भी टूट जाती है।
गरीब को तो लगता है
कि एक मकान होगा अपना,
तो शांति होगी।
थोड़ा धन-संपत्ति होगी;
सुविधा होगी;
फिर सुख और चैन से रहेंगे।
उसे यह भी नहीं पता
कि सुख-चैन यहां हो ही नहीं सकता।
धर्मशाला में कैसा सुख-चैन?
कब उठा लिए जाओगे…!
आधी रात में पुकार लिए जाओगे!
कब मौत का दूत
द्वार पर खड़ा हो जाएगा
और दस्तक देने लगेगा–
कुछ भी तो नहीं कहा जा सकता!
यहां चैन कैसे हो सकता है?
बेचैनी यहां स्वाभाविक है।
जिनके पास नहीं है,
वे दुखी हैं–यह समझ में आता है;
लेकिन जिनके पास है
वे भी दुखी हैं–वह शायद और भी घने दुख में हैं।
समझ में नहीं आता
आदमी सुख की तलाश करता है,
लेकिन सुख शाश्वत में ही
हो सकता है।
इस सूत्र पर ध्यान करना।
सुख शाश्वत का लक्षण है।
क्षणभंगुर में सुख नहीं हो सकता।
यह
जो पानी के बबूले जैसा जीवन है,
इसमें तुम कितने ही भ्रम पैदा करो
और कितने ही सपने देखो,
सुख नहीं हो सकता।
तुम कैसे
अपने को धोखा दोगे!
तुम रोज देखते हो
कोई चला, किसी की अरथी उठी।
तुम रोज देखते हो
किसी की चिता जली।
तुम रोज देखते हो
लोगों को गिरते–
जो क्षण भर पहले तक ठीक थे,
तुम जैसे थे,
चलते थे,
दौड़ते थे,
वासनाओं से भरे थे,
बड़ी महत्वाकांक्षाएं थीं–
और अब
धूल भरी रह गई मुंह में।
तुम कैसे झुठलाओगे इस सत्य को?
फूल वृक्ष से गिरता है,
कि फल वृक्ष से गिरता है,
कि आदमी पृथ्वी पर गिर जाता है।
यहां हम भी ज्यादा देर
नहीं हो सकते।
लाख अपने मन को समझाएं,
लाख अपने मन को बुझाएं,
और कहें कि
और मरते हैं,
मैं थोड़े ही मरता हूं,
सदा कोई और मरता है,
मैं थोड़े ही मरता हूं,
फिर मैं अपवाद हूं,
कौन जाने
मैं कभी न मरूं!–
मगर कैसे तुम धोखा दोगे?
इतने प्रमाणों के विपरीत
तुम कैसे धोखा दोगे अपने को
सारे मरघट,
सारे कब्रिस्तान
प्रमाण हैं इस बात के
कि यह जगह घर नहीं है।
जैसे ही यह खयाल
बहुत स्पष्ट हो जाता है,
कांटे की तरह चुभने लगता है प्राणों में
कि यह हमारा घर नहीं–
तब एक खोज शुरू होती है–
असली घर की खोज।
मीरा कहती है: मैं तो गिरधर के घर जाऊं।
वह असली घर
परमात्मा का ही घर हो सकता है।
परमात्मा यानी जो सदा है।
आदमी यानी जो कभी था
और कभी नहीं हो जाएगा।
परमात्मा यानी जो सदा था,
सदा है,
सदा होगा।
सातत्य! सनातनता! शाश्वतता! अनंतता
जिसका स्वभाव है,
वहीं विश्राम है।
उसकी गोद में ही विश्राम है।
फिर तुम उसे राम कहो,
रहीम कहो–
यह तुम्हारी मौज की बात।
मीरा के लिए उसका नाम गिरधर है, गोपाल है।
यह नाम का ही भेद है।
नाम में बहुत मत उलझ जाना।
मतलब की बात समझ लेना।
आम का रस चूस लेना,
गुठलियां गिनने मत बैठ जाना।
तुम किस तरह उसे पुकारते हो,
यह तुम्हारी मौज–
मगर पुकारो!
पृथ्वी से जरा आंखें ऊपर उठाओ–
आकाश की तरफ। प्यारे को खोजो।
ऐसा नहीं है
कि प्यारा बहुत दूर है।
और ऐसा भी नहीं है
कि तुम्हें बड़ी-बड़ी
पहाड़ियां चढ़नी हैं,
तब तुम्हें प्यारा मिलेगा।
मजा तो यह है
कि प्यारा बहुत करीब है।
संसार बहुत दूर है,
इसलिए किसी को नहीं मिल पाता।
चलते हैं लोग,
लगता है
मिला, मिला,
अब मिला,
तब मिला–
मिलता कभी नहीं।
संसार कभी किसी को मिला नहीं
बस ऐसा ही लगता है
जैसे दूर जमीन को छूता हुआ आकाश,
क्षितिज: यह रहा!
थोड़ा और दौड़ लें,
मिल जाएगा!
लेकिन तुम
जितना दौड़ते हो,
क्षितिज भी उतना ही दौड़ जाता है।
तुम्हारे और क्षितिज के बीच की दूरी
सदा बराबर रहती है,
वही की वही;
एक ही अनुपात रहता है,
उसमें फर्क नहीं पड़ता।
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संसार
कब किसको मिला है?
संसार मिलता ही नहीं
और मजा यह है
कि संसार बड़ा पास मालूम होता है।
और परमात्मा
पास मालूम नहीं होता
लेकिन मिल सकता है,
क्योंकि पास है–
इतना पास है,
कि तुम्हारे अंतरतम में बैठा है;
शायद इसीलिए दिखाई भी नहीं पड़ता।
मछली को सागर कैसे दिखाई पड़े?
उसी में पैदा होती है,
उसी में लीन हो जाती है।
आदमी को परमात्मा कैसे दिखाई पड़े?
उसी में हम पैदा होते हैं,
उसी में जीते,
उसी में श्वास लेते,
उसी में एक दिन लीन हो जाते हैं!
हम उसकी ही तरंग हैं।
हम उसकी ही वीणा पर उठे स्वर हैं।
हम उसके ही फूल से उड़ी सुवास हैं।
हम उसके ही दीये की किरण हैं।
हमारा उससे तादात्म्य है।
इसलिए
भेद न होने के कारण
देखना बहुत मुश्किल है।
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भेद चाहिए
दृश्य और द्रष्टा में,
तभी देखना हो पाता है।
कोई चीज
तुम्हारी आंख के करीब लाई जाए,
तो फिर
तुम न देख सकोगे।
एक और बात तो तुम जानते ही हो
कि अपनी आंख को
तुम कभी नहीं देख पाते।
आंख,
जिससे तुम सब देखते हो,
अपने प्रति बिलकुल ही
अपरिचित है।
अगर आंख को देखना हो तो
दर्पण में देखना पड़ता है।
दर्पण में आंख दूर हो जाती है।
प्रतिबिंब बनता है,
प्रतिबिंब दूर हो जाता है।
मगर आंख थोड़े ही देखते हो दर्पण में
आंख की छाया देखते हो।
अपनी आंख को तो
किसी ने कभी देखा ही नहीं।
क्योंकि देखना
आंख की क्षमता है–
इतनी करीब है
कि उसको अलग
कैसे रखोगे?
और
अलग रख भी दोगे
तो फिर देखोगे किससे?
ऐसा ही परमात्मा है:
तुम्हारे चैतन्य की क्षमता है।
घर बहुत दूर नहीं है।
शायद तुम
घर की तरफ पीठ किए खड़े हो।
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मीरा के इन वचनों को सुनना।
ये वचन
तुम्हारे हृदय के भी वचन
किसी दिन बनें
तो तुम्हारा सौभाग्य होगा।
इन्हें तुम
गीत, काव्य और भजन ही
मत समझना।
यह प्राणों की प्यास है।
यह प्राणों की पुकार है।
मीरा ने जो कहा है,
यह उसके हृदय का भाव है।
यह कोई दर्शनशास्त्र नहीं है।
मीरा किसी सिद्धांत को
सिद्ध करने नहीं चली है
और न दुनिया को
कोई धर्म देने चली है।
मीरा तो अपनी प्यास की अभिव्यक्ति कर रही है।
इसलिए जिन लोगों को
सच में ही प्यासे होना है,
वे मीरा का हाथ पकड़ लें;
वे उसकी भाव-भंगिमा में डूबें।
वे उसके भाव को
अपना भाव बना लें।
गुनगुनाओ मीरा को।
डुबकी लो उसमें।
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मैं तो गिरधर के घर जाऊं।
मीरा कहती है:
मुझे तो अब
एक ही घर
याद आता है–
परमात्मा का–
वहीं मुझे जाना है।
यहां से मुझे हटा लो।
मुझे वापस बुला लो।
यह निष्कासन बहुत हो गया।
यह दंड काफी है।
अब मुझे और दूर न रखो।
।।ओशो ।।
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