ओशो की महात्मा गांधी से पहली मुलाकात....

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ओशो की महात्मा गांधी से पहली मुलाकात....
मैं अभी भी उस रेलगाड़ी को देख सकता हूं जिसमें गांधी सफर कर रहे थे। वे सदा तीसरे दर्जे, थर्ड क्‍लास में सफर करते थे। परंतु उनका यह थर्ड क्‍लास फ़र्स्ट क्‍लास, प्रथम श्रेणी से भी अधिक अच्‍छा था। 
साठ सीटों के डिब्‍बे में वे, उनकी पत्‍नी और उनका सैक्रेटरी—केवल यह तीन लोग थे। सारा डिब्‍बा आरक्षित था।
और वह कोई साधारण प्रथम श्रेणी का डिब्‍बा नहीं था क्‍योंकि ऐसा डिब्‍बा तो दुबारा मैंने कभी देखा ही नहीं। वह तो प्रथम श्रेणी का डिब्‍बा ही रहा होगा। और सिर्फ प्रथम श्रेणी का ही नहीं बल्‍कि विशेष प्रथम श्रेणी का, सिर्फ उस पर ‘’तृतीय श्रेणी’’ लिख दिया गया था और तृतीय श्रेणी बन गया था। और इस प्रकार महात्‍मा गांधी के सिद्धांत और उनके दर्शन की रक्षा हो गई थी।
उस समय मैं केवल दस साल का था। 
मेरी मां यानी मेरी नानी ने मुझे तीन रूपये देते हुए कहा कि स्‍टेशन बहुत दूर है और तुम भोजन के समय तक शायद वापस घर न पहुच सको और इन गाड़ियों का कोई भरोसा नहीं है। 
बारह-तेरह घंटे देर से आना तो इनके लिए आम बात है। इसलिए ये तीन रूपये अपने पास रख लो। भारत में उन दिनों तीन रुपयों को तो एक अच्‍छा खासा खजाना माना जाता था। तीन रुपयों में तो एक आदमी तीन महीने तक अच्‍छी तरह से रह सकता था। 
उस समय सोने की मोहरें गायब हो गई थीं और चाँदी के रूपयों का प्रचलन था। अब उस मलमल के कुर्ते की जेब के लिए चाँदी के तीन रूपये बहुत भारी थे—जेब लटक रही थी। ऐसा मैं क्‍यों कह रहा हूं, क्‍योंकि इसको जाने बिना आप लोग उस बात को समझ नहीं सकोगे जो मैं कहने जा रहा हूं।
गाड़ी हमेशा की तरह तेरह घंटे लेट आई। बाकी सभी लोग चले गए थे। सिवाय मेरे। तुम तो जानते है कि मैं कितना जिद्दी हूं। स्‍टेशन मास्‍टर ने भी मुझसे कहा: बेटा तुम्‍हारा तो कोई जवाब नहीं है। सब लोग चले गए हैं किंतु तुम तो शायद रात को भी यहीं पर ठहरने के लिए तैयार हो। और अभी भी गाड़ी के आने को कुछ पता नहीं है। और तुम सुबह चार बजे से उसका इंतजार कर रहे हो।
स्‍टेशन पर चार बजे पहुंचने के लिए मुझे अपने घर से आधीरात को ही चलना पडा था। फिर भी मुझे अपने उन तीन रुपयों को खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। क्योंकि स्‍टेशन पर जितने लोग थे, सब कुछ न कुछ लाए थे और वे सब इस छोटे लड़के की देखभाल कर रहे थे। वे मुझे फल, मिठाइयों और मेवा खिला रहे थे। सो मुझे भूख लगने का कोई सवाल ही नहीं था। 
आखिर जब गाड़ी आई तो अकेला मैं ही वहां खड़ा था। बस एक दस बरस का लड़का स्‍टेशन मास्‍टर के साथ वहां खड़ा था।
स्‍टेशन मास्‍टर ने महात्‍मा गांधी से मुझे मिलवाते हुए कहा: 
इसे केवल छोटा सा लड़का ही मत समझिए। दिन भर मैंने इसे देखा है और कई विषयों पर इससे चर्चा की है, क्‍योंकि और कोई काम था नहीं। बहुत लोग आए थे और बहुत पहले चले गए, किंतु यह लड़का नहीं गया। सुबह से आपकी गाड़ी का इंतजार कर रहा है। मैं इसका आदर करता हूं, क्‍योंकि मुझे पता है कि अगर गाड़ी न आती तो यह यहां से जानेवाला नहीं था। यह यहीं पर रहता। आस्‍तित्‍व के अंत तक यह यहीं रहता। 
अगर ट्रेन न आती तो यह कभी नहीं जाता।
महात्‍मा गांधी बूढे आदमी थे। उन्‍होंने मुझे अपने पास बुलाया और मुझे देखा। परंतु वे मेरी ओर देखने के बजाय मेरी जेब की और देख रहे थे। 
बस उनकी इसी बात ने मुझे उनसे हमेशा के लिए विरक्‍त कर दिया। 
उन्‍होंने कहा: यह क्‍या है?   
मैंने कहा: तीन रूपये।
इस पर तुरंत उन्‍होंने मुझसे कहा, 
इनको दान कर दो। उनके पास एक दान पेटी होती थी, जिसमें सूराख बना हुआ था। 
दान में दिए जाने वाले पैसों को उस सूराख से पेटी के भीतर डाल दिया जाता था। 
चाबी तो उनके पास रहती थी। 
बाद में वे उसे खोल कर उसमें से पैसे निकाल लेते थे।
मैंने कहा: अगर आप में हिम्‍मत है तो आप इन्‍हें ले लीजिए, जेब भी यहां है रूपये भी यहां है, 
लेकिन क्‍या मैं आप से पूछ सकता हूं कि ये रूपये आप किस लिए इक्कठा कर रहे है।
उन्‍होंने कहा: गरीबों के लिए।
 मैंने कहा: तब यह बिलकुल ठीक है। 
तब मैंने स्‍वयं उन तीन रुपयों को उस पेटी में डाल दिया, लेकिन आश्‍चर्य तो उन्‍हें होना था 
क्‍योंकि जब मै वहां से चला 
तो उस पेटी को उठा कर चल पडा।
उन्‍होंने कहा: अरे, यह तुम क्‍या कर रहे हो। 
यह तो गरीबों के लिए है।
मैंने उत्‍तर दिया: 
हां, मैंने सुन लिया है, 
आपको फिर से कहने की जरूरत नहीं है। 
मैं भी तो गरीबों के लिए ही ले जा रहा हूं। 
मेरे गांव में बहुत से गरीब है। 
अब मेहरबानी करके मुझे इसकी चाबी दे दीजिए, 
नहीं तो इसको खोलने के लिए मुझे किसी चोर को बुलाना पड़ेगा। 
क्‍योंकि चोर ही बंद ताले को खोलने की कला जानते है।
उन्‍होंने कहा: अजीब बात है....
उन्‍होंने अपने सैक्रेटरी की ओर देखा। वह गूंगा बना था, जैसा कि सेक्रेटरी होते है। अन्यथा वे सेक्रेटरी ही क्‍यो बनते? 
उन्‍होंने अपनी पत्‍नी कस्तूरबा की ओर देखा। 
कस्‍तूरबा ने उनसे कहा: अच्‍छा हुआ, अब आपको अपने बराबरी का व्यक्ति मिला। आप सबको बेवकूफ बनाते हो, अब यह लड़का आपका बक्‍सा ही उठा कर ले जा रहा है। 
अच्‍छा हुआ। बहुत अच्‍छा हुआ, 
मैं इस बक्‍से को देख-देख कर तंग आ गई हूं।
परंतु मुझे उन पर दया आ गई 
और मैंने उस पेटी को वहीं पर छोड़ते हुए कहा: 
आप सबसे गरीब मालूम होते है। 
आपके सैक्रेटरी को तो कोई अक्ल नहीं है। 
न आपकी पत्‍नी का आपसे कोई प्रेम दिखाई देता है। 
मैं यह बक्‍सा नहीं ले जा सकता, इसे आप अपने पास ही रखिए। 
परंतु इतना याद रखिए कि मैं तो आया था एक महात्‍मा से मिलने परंतु मुझे मिला एक बनिया।
उनकी जाति भी वही थी। 
उस छोटी सी उम्र में भी महात्‍मा गांधी मुझे व्‍यवसायी ही लगे।
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ओशो

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