क्या होता है अशांत मन -- ओशो

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सुकरात को 
उसके मरने के पहले 
कुछ मित्रों ने पूछा कि 
तुम स्वर्ग जाना पसंद करोगे 
या नरक? 
तो सुकरात ने कहाः 
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता 
कि मैं कहां भेजा जाता हूं, 
मैं जहां जाऊंगा 
वहां 
मैं स्वर्ग का अनुभव 
करने में समर्थ हूं। 
इससे कोई भेद नहीं पड़ता 
कि मैं कहां जाता हूं, 
मैं जहां जाऊंगा 
अपना स्वर्ग 
अपने साथ ले जाऊंगा।
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हर आदमी 
अपना स्वर्ग या नरक 
अपने साथ लिए हुए है। 
और वह उसी मात्रा में 
अपने साथ लिए हुए है, 
जिस मात्रा में 
उसका मन शांत हो जाता है, 
शब्दों की भीड़ से 
मुक्त हो जाता है, 
मौन हो जाता है। 
जितनी गहरी 
साइलेंस होती है, 
उतना ही 
उसके बाहर 
एक स्वर्ग का घेरा, 
एक स्वर्ग का वायुमंडल 
उसके आस-पास 
चलने लगता है। 
इसलिए 
यह हो सकता है कि 
एक ही साथ बैठे हुए लोग, 
एक ही जगह पर न हों; 
यह हो सकता है 
कि 
आपके पड़ोस में 
जो व्यक्ति बैठा है 
वह स्वर्ग में हो 
और आप नरक में। 
यह 
इस बात पर निर्भर करेगा 
कि उसका मन कैसा है? 
उसके मन की 
आंतरिक दशा कैसी है? 
उस आंतरिक दशा पर ही 
बाहर का सारा जीवन, 
देखने का ढंग, 
अनुभूतियां 
सभी परिवर्तित हो जाती हैं।
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हमारे ही बीच 
महावीर या बुद्ध  
जैसे लोग हुए हैं, 
जो हमारे ही बीच थे, 
हमारी ही जमीन पर थे, 
लेकिन इसी जमीन पर 
उन्होंने उस आनंद को जाना 
जिसकी हमें 
कोई भी खबर नहीं है। 
कैसे? 
कौन से रास्ते से? 
कौन से मार्ग से? 
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उनके पास 
हमारे जैसा ही शरीर था, 
उस शरीर पर 
बीमारियां भी होती थीं 
और उस शरीर को भी
एक दिन 
मर जाना पड़ा। 
उनके पैर में भी 
कांटा चुभ जाता, 
तो खून बहता। 
और उनको भी 
गोली मार दी जाती, 
तो उनका शरीर 
समाप्त हो जाता। 
हड्डी और मांस 
हमारे जैसा ही था, 
भूख और प्यास 
हमारे ही जैसी थी, 
जिंदगी और मरण 
हमारे ही जैसा था। 
लेकिन फर्क क्या था? 
फर्क था तो 
भीतर कोई फर्क था। 
भीतर मन 
और तरह का था। 
हमारा मन 
और तरह का है। 
मन शांत था, 
मन मौन था। 
इस मौन और शांति से भी 
उन्होंने जीवन को जीया 
और उस जीवन में से 
बहुत सी सुगंध पाई, 
बहुत सा संगीत पाया।
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हम 
अशांति के द्वारा 
जीवन को जीते हैं 
और हम 
यह भी 
सोचते रहते हैं 
कि अगर हम शांत हो गए 
तो फिर जीवन कैसे चलेगा? 
जैसे जीवन 
अशांति से चल रहा हो। 
जीवन 
अशांति से नहीं चल रहा है, 
घिसट रहा है। 
जीवन 
अशांति से 
विकसित नहीं होता, 
केवल तड़पता है 
और परेशान होता है। 
और जीवन के व्यवहार का 
शांत हो जाने से 
कोई विरोध नहीं है। 
लेकिन शायद 
सैकड़ों वर्षों की शिक्षाओं ने 
हमारे मन में 
एक तरह का द्वंद्व, 
एक तरह का द्वैत 
पैदा कर दिया। 
सैकड़ों वर्षों से 
यह कहा जाता रहा है 
कि जिस व्यक्ति को 
शांत होना है 
उसे संसार छोड़ देना पड़ेगा। 
सैकड़ों वर्षों से 
यह बात समझाई गई है 
कि शांत होना, 
सत्य के मार्ग पर होना 
और संसार का व्यवहार, 
ये दोनों विरोधी बातें हैं।
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अगर 
मन शांत हो सके, 
तो संसार में ही, 
इस सामान्य जीवनचर्या में ही, 
इस दैनंदिन जीवन में ही 
परमात्मा के दर्शन शुरू हो जाएंगे।
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एक रात 
एक साध्वी 
एक गांव में 
मेहमान होना चाहती थी। 
लेकिन उस गांव के लोगों ने 
उसे ठहरने के लिए 
अपने दरवाजे न खोले। 
हर दरवाजे पर 
उसने प्रार्थना की 
कि आज की रात 
मैं यहां ठहर जाऊं, 
लेकिन द्वार 
बंद कर लिए गए– 
जैसा कि मैंने कल कहा–
वह साध्वी, 
वह अकेली महिला 
उस रात 
उस गांव में 
शरण मांगती थी, 
लेकिन 
उस गांव के लोगों का धर्म 
दूसरा था 
और साध्वी का धर्म दूसरा। 
इसलिए शरण 
देना संभव नहीं हुआ। 
एक शब्द बाधा बन गया। 
साध्वी 
किन्हीं और विचारों 
को मानती थी 
और गांव के लोग 
किन्हीं और विचारों को मानते थे। 
उस साध्वी को 
ठहरने की जगह नहीं मिली। 
आखिर उस सर्द रात में 
उसे गांव के बाहर 
एक वृक्ष के नीचे ही 
सो जाना पड़ा। 
रात कोई बारह बजे होंगे, 
तब ठंडी हवाओं में 
उसकी नींद खुल गई। 
उसने आंखें खोलीं, 
तो ऊपर पूर्णिमा का चांद 
वृक्ष के ऊपर खड़ा है 
और वृक्ष में रात के फूल 
चटक-चटक कर 
खिल रहे हैं। 
और उसने पहली बार 
आकाश में इतने सुंदर 
चांद को देखा, 
इतने एकांत में, 
इतने अकेलेपन में। 
और उसने पहली बार 
जीवन में 
उस वृक्ष पर 
रात के फूलों को 
खिलते हुए सुना। 
छोटी-छोटी बदलियां 
आकाश में तैरती थीं। 
वह उठी 
और उस मौन 
रात के 
सौंदर्य जाना और पीया। 
और फिर आधी रात को ही 
वह गांव में वापस पहुंच गई 
और उसने 
उन लोगों के द्वार खटखटाए 
जिन्होंने सांझ 
उसे शरण देने से 
इनकार कर दिया था। 
अंधेरी रात, 
आधी रात में 
वे घर के लोग उठे 
और उन्होंने पूछा, 
कैसे आई हो? 
हम तो सांझ को 
तुम्हें इनकार कर चुके। 
उस साध्वी ने कहाः 
मैं धन्यवाद देने आई हूं। 
काश, तुमने मुझे 
अपने घर में 
ठहरा लिया होता 
तो आज रात 
मैंने 
जो सौंदर्य जाना है 
वह मैं 
कभी भी     न जान पाती। 
तो मैं तुम्हें 
धन्यवाद देने आई हूं 
साध्वी की यह प्रतिक्रिया, 
क्या आपमें होती? 
किसी दूसरे व्यक्ति में होती? 
असंभव है। 
दूसरा व्यक्ति तो 
इतने क्रोध, वैमनस्य, घृणा, अपशब्दों से भर जाता कि शायद 
उसे नींद भी न आती। 
और इतने अपशब्दों 
क्रोध से 
भरे होने के कारण 
उसे चांद भी दिखाई न पड़ता। 
अपने भीतर 
इतने शोरगुल की वजह से, 
उसे फूलों के खिलने की 
खबर भी न मिलती। 
वह रात तो वैसी ही आती, 
चांद भी निकलता, 
फूल भी खिलते, 
लेकिन वह 
क्रोध से भरा हुआ मन, 
अशांत मन 
उस सबको न देख पाता 
हम सारे लोगों का मन भी 
संसार के प्रति 
जो इतनी शत्रुता से भर गया है, 
उसका कारण यह नहीं है कि 
संसार में चांद नहीं उगता 
और फूल नहीं खिलते; 
उसका कारण यह नहीं है 
कि संसार में सौंदर्य की कोई कमी है; 
उसका कारण यह नहीं है कि 
संसार में सत्य का कोई अभाव है; 
उसका कारण यह भी नहीं है 
कि संसार में 
चारों तरफ से 
परमात्मा की वर्षा 
नहीं हो रही है; 
कारण यह है कि   
हमारे पास 
वह मन नहीं है, 
जो उसे जान सके, 
देख सके 
और पहचान सके। 
उसे जानने 
और पहचानने के लिए 
एक शांत, एक साइलेंट माइंड चाहिए 
जिससे चारों तरफ 
संसार दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
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