अहंकार का रोग --- ओशो

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 मैंने सुना है, 

एक आदमी मरने जा रहा था। 

जिस नदी के किनारे वह मरने गया, 

एक सूफी फकीर बैठा हुआ था। 

फकीर ने कहा

क्या कर रहे हो?' 

वह आदमी जो 

कूदने ही वाला था, 

उसने कहा 

अब रोको मत, 

बहुत हो गया! 

जिंदगी में कुछ भी नहीं, 

सब बेकार है! 

जो चाहा, मिला नहीं

जो नहीं चाहा, 

वही मिला। 

परमात्मा मेरे खिलाफ है। 

मैं क्यों स्वीकार करूं यह जीवन?'

उस फकीर ने कहा, 

ऐसा करो, 

एक दिन के लिए रुक जाओ, 

फिर मर जाना। 

इतनी जल्दी क्या? 

तुम कहते हो, 

तुम्हारे पास कुछ भी नहीं?'

उसने कहा, '

कुछ भी नहीं! 

कुछ होता 

तो मरने क्यों आता?'

उस फकीर ने कहा, '

तुम मेरे साथ आओ। 

इस गांव का राजा 

मेरा मित्र है।’

फकीर उसे ले गया। 

उसने सम्राट के कान में कुछ कहा। 

सम्राट ने कहा, 

'एक लाख रुपये दूंगा।’ 

उस आदमी ने 

इतना ही सुना; 

फकीर ने 

राजा के कान में 

क्या कहा 

वह नहीं सुना। 

सम्राट ने कहा, 

फकीर आया 

और उस आदमी के कान में बोला 

कि सम्राट तुम्हारी दोनों आंखें एक लाख रुपये में खरीदने को तैयार है। 

बोलो, बेचते हो?

उस आदमी ने कहा, '

क्या मतलब? 

आंख, 

और बेच दूं! 

लाख रुपये में! 

दस लाख दे 

तो भी ना दूं

फकीर सम्राट के पास फिर गया। 

राजा ने कहा, 'अच्छा ग्यारह लाख देंगे।’

उस आदमी ने कहा, '

छोड़ो भी, 

यह धंधा 

करना ही नहीं। 

आंख बेचेंगे 

भला क्यों?'

फकीर ने कहा, '

कान बेचोगे? 

नाक बेचोगे? 

यह सम्राट 

हर चीज खरीदने को तैयार है। 

और जो दाम मांगो 

देने को तैयार है।’

उस आदमी ने कहा, 

'नहीं, 

यह धंधा हमें करना ही नहीं, 

 क्यों बेचेंगे अपना अंग

उस फकीर ने कहा, 

'जरा देख, 

आंख तू ग्यारह लाख में भी बेचने को तैयार नहीं, 

और रात तू मरने जा रहा था 

और कह रहा था 

कि मेरे पास कुछ भी नहीं है!'

जो मिला है 

वह हमें दिखायी नहीं पड़ता। 

जरा इन आंखों  का तो खयाल करो, 

यह कैसा चमत्कार है! 

आंख चमड़ी से बनी है, 

चमड़ी का ही अंग है; 

लेकिन आंख देख पाती है, 

कैसी पारदर्शी है! 

असंभव संभव हुआ है। 

ये कान 

काश

सुन पाते संगीत को, 

पक्षियों के कलरव को, 

हवाओं के मरमर को, 

सागर के शोर को! 

ये कान 

सिर्फ चमड़ी और हड्डी से बने हैं, 

यह चमत्कार तो देखो!

तुम हो, 

यह इतना बड़ा चमत्कार है 

कि इससे बड़ा कोई और चमत्कार तुम सोच ही नहीं सकते 

इस हड्डी, मांस—मज्जा की देह में 

चैतन्य का दीया जल रहा है, 

जरा इस चैतन्य के दीये का 

मूल्य तो आंको!

लेकिन तुम्हारी इस पर दृष्टि नहीं! 

तुम कहते हो, 

हमें सौ रुपये की नौकरी मिलनी चाहिए थी, 

नब्बे रुपये की मिली—

मरेंगे, आत्महत्या कर लेंगे! 

होना चाहिए था मिनिस्टर, 

केवल डिप्टी मिनिस्टर हो पाये—

नहीं जीयेंगे! 

मकान बड़ा चाहिए था, 

छोटा मिला—अब कोई सार नहीं है 

 बैंक में खाता खाली हो गया—

अब जीने में सार क्या है! 

जितना तुम चाहोगे 

उतना ही तुम्हारे जीवन में दुख होगा। 

तुम यह देखो 

कि बिना चाहे कितना मिला है! 

अपूर्व बरसा है! 

तुम्हारे ऊपर

अकारण! 

तुमने कमाया क्या है? 

क्या थी तुम्हारी कमाई

जिसके कारण तुम्हें जीवन मिले? 

क्या है तुम्हारा अर्जन, 

जिसके कारण 

क्षण भर 

तुम सूरज की किरणों में नाचो, 

चांद—तारों से बात करो? 

क्या है कारण? 

क्या है तुम्हारा बल? 

क्या है प्रमाण तुम्हारे बल का, 

कि हवाएं तुम्हें छुए 

और तुम गुनगुनाओ, 

आनंदमग्न हो, 

कि ध्यान संभव हो सके? 

इसके लिए तुमने क्या किया है? 

यहां सब तुम्हें मिला है—प्रसादरूप! 

फिर भी तुम परेशान हो। 

फिर भी तुम 

कहे चले जाते हो। 

फिर भी तुम उदास हो। 

जरूर 

अहंकार का रोग 

खाये चला जा रहा है। 

वही सबको पकड़े हुए है।

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