परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग-- ओशो

*न संदेह कर सकता हूँ नहीं श्रद्धा, मुझे क्या करना चाहिए?*
कभी तुमने नाव चलाई? 
एक पतवार से 
चला कर देखना। 
अगर चलाओगे, तो
नाव गोल-गोल घूमेगी। 
वहीं की.वहीं 
चक्कर काटेगी, 
कहीं जाएगी नहीं। 

और आदमी 
जैसी नाव चला रहा है, 
वह एक पतवार की नाव है। 

उसमें आदमी 
अकेला ही चला रहा है, 
परमात्मा का हाथ नहीं है। 
परमात्मा को तुमने 
काटकर 
अलग कर दिया है। 

तुम अकेले ही 
चला रहे हो। 
वह गोल-गोल घूमती है। 

एक दुष्ट चक्र 
पैदा हो जाता है-- 

वहीं-वहीं पुनरुक्ति करती है, 
कहीं जाती नहीं, 
कहीं यात्रा नहीं होती, 
कोई मंजिल नहीं आती।
*************************
अब 
इस पतवार को भी रख लो। 
इससे कोई सहारा नहीं है। 
इसको भी नाव में रख लो। 
अब तो तुम 
पाल खोल दो नाव का। 
और परमात्मा को कहो, 
जहां तेरी मर्जी, 
जहां तेरी हवाएं ले जाएं, 
अब हम वहीं जाएंगे।
*********************
नाव को चलाने के 
दो ढंग हैं : 
एक तो पतवार से, 
और एक पाल से। 
रामकृष्ण से 
कोई पूछता था, 
मैं क्या करूं? 
तो रामकृष्ण ने कहा, 
तुम कुछ मत करो। 
तुम काफी कर चुके हो। 
बहुत उपद्रव हो गया है। 
अब तुम पाल खोल दो 
और पतवार रख लो। 
रामकृष्ण ने कहा 
"पहले मैंने भी 
पतवार चलाकर देख ली, 
कहीं नहीं पहुंचा। 
फिर मैंने पाल खोल दिया 
और हवाएं नाव को ले जाने लगीं।
************************
"वह सदा तत्पर हैं 
तुम्हें ले जाने को। 
तुम ही राजी नहीं हो। 
तुम ही आनाकानी करते हो। 
उसका हाथ बढ़ा हुआ है, 
तुम थोड़ा हाथ बढ़ाओ। 
अगर हाथ नहीं बढ़ा सकते हो, 
तो खड़े रह जाओ। 
उससे कह दो 
अब तेरी ही मर्जी। 
तू ही हाथ बढ़ा।
तो भी घटना घटती है। 
जिस दिन व्यक्ति 
सब कुछ छोड़ देता है-- 
समर्पण! कर देता है
 उसी दिन 
क्रांति शुरू हो जाती है।
*************************"
तो दुनिया में 
दो मार्ग हैं। 
एक मार्ग है 
साधक का 
और एक मार्ग है 
भक्त का। 
साधक के मार्ग पर 
तो संदेह पूर्ण होना चाहिए, 
ताकि श्रद्धा का जन्म हो जाए। 
भक्त के मार्ग पर 
संदेह के पूर्ण होने की भी 
जरूरत नहीं है, 
किसी चीज के 
पूर्ण होने की 
कोई जरूरत नहीं है। 
भक्त के मार्ग पर तो 
असहाय अवस्था की 
प्रतीति होनी चाहिए। 
उसी असहाय अवस्था में 
से श्रद्धा का कमल निकल आता है।
असहाय अवस्था तो 
बहुत बुरी लगती है। 
वह कीचड़ जैसी है। 
लेकिन 
जब उसमें से 
समर्पण का कमल निकलता है, 
तो कीचड़ और कमल में 
जमीन आसमान का फर्क दिखाई पड़ता है। 
निकलता कीचड़ से है, 
लेकिन कीचड़ जैसा 
बिलकुल नहीं है। 
कीचड़ से बिलकुल विपरीत है, 
बिलकुल भिन्न है। 
कहां कमल, 
कहां कीचड़! 
अगर तुम्हें पता न हो 
कि कमल कीचड़ से पैदा होता है, 
तो कमल को देखकर 
तुम कल्पना भी नहीं कर सकते 
कि इसका कीचड़ से 
संबंध हो सकता है।
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समर्पण 
असहाय अवस्था से निकलता है। 
असहाय अवस्था 
कीचड़ है। 
जब तुम 
कीचड़ में फंसे हो, 
तब तुम 
सोच भी नहीं सकते 
कि इसमेें कमल का बीज यहां छिपा है
कमल के पैदा होने की संभावना है, 
लेकिन जब कमल निकलता है, तभी तुम जानोगे। 
कि असहाय अवस्था से लोगों ने समर्पण को पा लिया।
***************************
तो तुम 
कुछ मत करो 
करना छोड़ दो। 
तुम बहो; 
बहुत तैर लिए 
तैरो मत। 
नदी ले जाएगी। 
नदी जा ही रही है 
सागर की तरफ। 
तुम नाहक ही 
शोरगुल मचाते हो, 
हाथ पैर तड़फाते हो। 
नदी उसी परमात्मा की तरफ 
जा रही है। 
जीवन उस तरफ ही
बह रहा है। 
अगर तुम अड़चन न डालो 
तो काफी है। 
तुम पहुंच जाओगे।

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