मन को जीतना ही सबसे बड़ा तप है

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एक समय एक ऋषि घूमते-घूमते नदी के तट पर पहुंच गए। मुनि को मौज आई कि आज हम भी नाव पर बैठकर नदी की सैर करें और प्रभु की प्रकृति के दृश्यों को देखें'। 
देखने के विचार से चढ़ बैठे नाव पर और चले गए नाव के नीचे के खाने में जहां नाविक का सामान और निवास होता है। 
जाते ही उनकी दृष्टि एक कुमारी कन्या पर पड़ी जो नाविक की बेटी थी। वह इतनी रुपवती थी कि ऋषि मोहित हो गया, उसे मूर्च्छा सी आ गई। उस कुंआरी कन्या ने पूछा―'मुनिवर ! क्या हो गया' ?
*मुनि बोला― 'देवी ! मैं तुम्हारे सौन्दर्य पर इतना मोहित हो गया कि मैं अपनी सुध-बुध खो रहा हूं। अब मेरा मन तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। मेरा जीवन मृत्यु तुम्हारे आधीन है।
वह कन्या बोली -- आपका कथन सत्य है, परन्तु मैं तो नीच जाति की हूं।'
मुनि बोले ― मुझमें यह सामर्थ्य है कि मेरे स्पर्श से तुम शुद्ध हो जाओगी।
कन्या बोली― पर अभी तो दिन है।
मुनि बोले― मैं अभी रात कर देता हूं।'
कन्या बोली― फिर भी हम अभी  नदी में है।'
मुनि बोले ―'मैं अभी इसे रेत बना सकता हूं।'
कन्या बोली― पर अभी तो मैं अपने माता-पिता के अधीन हूं। उनकी सहमति नहीं होगी।'
मुनि बोले ― मैं शाप देकर अभी उनको भस्म कर सकता हूं।'
कन्या बोली― भगवन् ! जब परमात्मा ने आपको आपके भजन, तप के प्रताप से इतनी सामर्थ्य और सिद्धि दी है तो कितनी मूर्खता है कि अपने जन्म जन्मान्तरों के तप को एक नीच काम और नीच आनन्द और वह भी एक दो मिनट के लिए विनष्ट करते हो ! 
आपमें इतनी सामर्थ्य है कि जल को थल, दिन को रात बना सको 
पर यह सामर्थ्य नहीं कि मन को रोक सको।
मुनि ने इतना सुना ही था कि उसके ज्ञाननेत्र खुल गए। तत्काल कन्या के चरणों में गिर पड़ा कि तुम मेरी गुरु हो, 
सम्भवतः यही कमी थी जो मुझे नाव की सैर का बहाना बनाकर खींच लाई।
शिक्षा
रुप और काम बड़े-बड़े तपस्वियों को गिरा देता है। तपी-जती स्त्री रुप से बचें।
कच्चे पक्के की परीक्षा तो संसार में होती है, जंगल में नहीं।
जब अपनी भूल का भान हो जावे, तब हठ मत करो।
जिन पर प्रभु की दया होती है, उनका साधन वे आप बनाते हैं। 
इसी सन्देश को मनुस्मृति में बताते हुए कहा गया है कि
जिस प्रकार से विद्वान सारथि घोड़ों को नियम में रखता है , उसी प्रकार हमको अपने मन तथा आत्मा को खोटे कामों में खींचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों को सब प्रकार से खींचने का प्रयत्न करना चाहिए।

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